गेटवे ऑफ़ हिमालय,आदिगुरु शंकराचार्य की तपोभूमि जैसे अलंकरणों वाले जोशीमठ का भारत के लिए बड़ा धार्मिक,पर्यटन और सामरिक महत्व भी है क्योंकि यह अंतिम सीमावर्ती शहर है जो भूकंपीय श्रेणी 5 में आता है और प्रकृति के विरुद्ध अवैज्ञानिक विकास की कीमत चुका रहा है।
जोशीमठ में दिनोंदिन तेजी से दरकते मकान और खिसकते पहाड़ ने जता दिया है कि प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने के क्या नतीजे हो सकते हैं.
अनेक चर्चित स्थल, सड़कें, घरों और खेत-खलिहानों तक दरारों में बदलते जा रहे हैं. जल निकास के साधन और तमाम सीवर सिस्टम ध्वस्त हो गए हैं.
पर्यावरणविद,वैज्ञानिक और चिपको आंदोलनकारी सहित कितने लोगों ने सवाल उठाए पर किसी को गंभीरता से नहीं लिया गया.
1970 में भी जोशीमठ में जमीन धंसने की घटनाएं हुई थीं.1976 में गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एमसी मिश्रा के नेतृत्व में 18 सदस्यीय समिति की रिपोर्ट ने बता दिया था कि जोशीमठ बहुत धीरे-धीरे ही सही, पर डूब रहा है. धँसाव, कटाव व रिसाव वाली जगहों को तत्काल भरकर वहां पर पेड़ लगवाएं जाएं ताकि प्राकृतिक माहौल की क्षतिपूर्ति की जा सके. कमिश्नर मिश्रा पर ही सवालिया निशान उठा कर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. नतीजा विकराल रूप से सामने है. अभी पीएमओ की टीम तक इसका अध्ययन कर रही है। विरोध के बीच कुछ होटलों और दरकते भवनों को तोड़ा जा रहा है पर शायद यह सवाल कभी नहीं पूछा जाएगा कि ऐसे संवेदनशील स्थान पर बिना सोचे समझे किसने इतनी इमारतें खड़ी करने दी, और क्यों ?
वैज्ञानिकों ने भी चेताया था कि शहर का कोई ड्रेनेज सिस्टम नहीं है. बसावट ग्लैशियर के रॉ मैटेरियल पर है. ऐसे तमाम तथ्यों के सामने आने के बाद भी अब तक की सरकारें संभावित मानव आयातित आपदा की ओर आंखें मूंदी रहीं.
भू धंसान पर एक रिपोर्ट ने पहले ही बता दिया था कि जोशीमठ के ढलान अस्थिर हो चुके हैं. 2013 में भी हाइड्रोपॉवर परियोजना से जुड़ी सुरंगों पर उंगलियां उठी थीं तो कुछ समय के लिए परियोजना रोकी भी गई। यहाँ तक कि वहां की नगरपालिका के एक ताज़ा सर्वे में करीब 3 हजार आबादी और 550 से ज्यादा मकान असुरक्षित मिले थे पर इसे अमान्य किया गया.
नए साल के दूसरे-तीसरे दिन से ही धरती चीरकर मलबे सहित निकलता पानी और धंसती जमीन बिना भूकंप के बड़ी चेतावनी है. अंधाधुंध विकास और बेतरतीब बस्तियों को बनाने, बढ़ाने और संवारने का सिलसिला इन ख़तरनाक संकेतों के बाद भी क्यों नहीं रुका? उत्तराखंड पहले ही कई भयावह त्रासदियां झेल चुका है. भविष्य में जोशीमठ और ऐसे अन्य स्थानों की क्या स्थिति होगी, कोई नहीं जानता?
झारखंड के सुलगते भूगर्भ कोयले से दरकती धरती की भी यही स्थिति है .
काफी कुछ हमारे हाथ से निकल गया है, लेकिन अभी भी इसे सुधारा और संभाला जा सकता है. पूरी ईमानदारी से सोचा और प्रयास किया जाएगा, तभी बात बनेगी, वरना रस्म अदायगी और बंदरबांट से कुछ बदलने वाला नहीं.
मानवता, भावी पीढ़ी, जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों के साथ प्रकृति के हित में ईमानदार कोशिश होनी चाहिए. जोशीमठ में दरकते आशियाने और सिसकते इंसानों की चीख पुकार ने द्रवित कर दिया है.पहाड़ की नाराजगी दिखने के बावजूद इसकी अनदेखी एक ख़तरनाक संकेत है जिसे पूरा देश कितनी गंभीरता से लेता है, यह देखना अभी बाकी है .
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सुनील बादल
सुनील बादल 42 वर्षों से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हैं . झारखंड और भारत की पत्र पत्रिकाओं में लेख और कॉलम छपते रहे हैं .एक उपन्यास सहित झारखंड पर केंद्रित दस सम्मिलित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं.