हिंदी को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में फादर कामिल बुल्के का नाम अग्रणी है. वैसे तो विदेशी मूल के ऐसे कई अध्येता हुए हैं जिन्हें इंडोलॉजिस्ट या भारतीय विद्याविद् कहा जाता है. उन्होंने भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति को अपने नजरिए से देखा-परखा. लेकिन इन विद्वानों की दृष्टि ज्यादातर औपनिवेशिक रही है और इस कारण शायद वे ईमानदारी से भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति का अध्ययन करने में चूक गए. बुल्के ने भारतीय साहित्य और संस्कृति को उसकी संपूर्णता में देखा और विश्लेषित किया.
बुल्के ने हिंदी प्रेम के कारण अपनी पीएचडी थीसिस हिंदी में ही लिखी. जब वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे उस समय देश में सभी विषयों की थीसिस अंग्रेजी में ही लिखी जाती थी. उन्होंने जब हिंदी में थीसिस लिखने की अनुमति माँगी तो विश्वविद्यालय ने अपने शोध संबंधी नियमों में बदलाव लाकर उनकी बात मान ली। उसके बाद ही देश में भी हिंदी में थीसिस लिखी जाने लगी.
उन्होंने एक जगह लिखा है, ‘मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में राँची (झारखंड) पहुँचा और मुझे यह देखकर दुःख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है. मेरे देश की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया.’ पत्रकार–कवि आलोक पराड़कर द्वारा संपादित ‘रामकथा-वैश्विक सन्दर्भ में’ का लोकार्पण करते प्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह ने कहा था –“फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रन्थ ‘राम कथा’ की सर्वत्व चर्चा हो रही है. वास्तव में इस ग्रन्थ से हिंदी में तुलनात्मक साहित्य की शुरुआत होती है इतना ही नहीं देश-विदेश में रामकथा के तुलनात्मक अध्ययन की शुरुआत होती है. उन्होंने अपनी मातृभूमि बेल्जियम में फ्रेंच के विरुद्ध फ्लेमिश की लड़ाई देखी थी. एक बार उन्होंने लिखा था कि अगर वह हिंदी की सेवा में नहीं लगते तो अपने देश में फ्लेमिश क्रांतिकारी होते.”
प्राचीन भारत के समान ही आधुनिक यूरोप ज्ञान सम्बन्धी खोज के क्षेत्र में अग्रसर रहा है. यूरोपीय विद्वान ज्ञान तथा विज्ञान के रहस्यों के उद्घाटन में निरंतर यत्नशील रहे हैं. उनकी यह खोज का क्षेत्र यूरोप तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि संसार के समस्त भागों पर उनकी दृष्टि पड़ी. इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के लेखक फादर बुल्के को हम इन्हीं विद्याव्यसनी यूरोपीय अन्वेषकों की श्रेणी में रख सकते हैं. भारतीय विचारधारा को समझने के लिए इन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी भाषा और साहित्य का पूर्ण परिश्रम के साथ अध्ययन किया. प्रयाग विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. की परीक्षा पास करने के उपरान्त आप ने डी. फील. के लिए रामकथा का विकास शीर्षक विषय चुना. उक्त ग्रंथ उनका शोध प्रबंध ही है जिस पर उन्हें प्रयाग विश्वविद्यालय से डी.फिल. की उपाधि मिली थी.
चार भागों में विभक्त इस ग्रंथ की रचना में कितना परिश्रम किया होगा, यह पुस्तक के अध्ययन से ही समझ में आ सकता है. रामकथा से संबंध रखने वाली किसी भी सामग्री को उन्होने छोड़ा नहीं है. प्रथम भाग में ‘प्राचीन रामकथा साहित्य’ का विवेचन है जिसके पाँच अध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकिकृत रामायण, महाभारत की रामकथा, बौद्ध रामकथा तथा जैन रामकथा संबंधी सामग्री की पूर्ण समीक्षा की गई है. द्वितीय भाग का संबंध रामकथा की उत्पत्ति से है और इसके चार अध्यायों में दशरथ जातक की समस्या, रामकथा के मूल स्रोत के संबंध में विद्वानों के मत, प्रचलित वाल्मीकीय रामायण के मुख्य प्रक्षेपों तथा रामकथा के प्रारंभिक विकास पर विचार किया गया है. ग्रंथ के तृतीय भाग में ‘अर्वाचीन रामकथा साहित्य का सिंहावलोकन’ है.
इसमें भी चार अध्याय हैं. पहले और दूसरे अध्याय में संस्कृत के धार्मिक तथा ललित साहित्य में पाई जाने वाली रामकथा सम्बन्धी सामग्री की परीक्षा है. तीसरे अध्याय में आधुनिक भारतीय भाषाओं के रामकथा संबंधी साहित्य का विवेचन है. इससे हिंदी के अतिरिक्त तमिल, तेलुगु, मलायालम, कन्नड़, बांग्ला, काश्मीरी, सिंहली आदि समस्त भाषाओं के साहित्यों की छान-बीन की गई है. चौथे अध्याय में विदेश में पाये जाने वाले रामकथा के रूप में सार दिया गया है और इस में तिब्बत, खोतान, हिंदेशिया, हिंदचीन, श्याम, ब्रह्मदेश आदि में उपलब्ध सामग्री का पूर्ण परिचय एक ही स्थान पर मिल जाता है. अंतिम तथा चतुर्थ भाग में रामकथा संबंधी एक-एक घटना को लेकर उसका पृथक-पृथक विकास दिखलाया गया है. घटनाएँ कालक्रम से ली गई हैं अतः यह भाग सात कांडों के अनुसार सात अध्यायों में विभक्त है. उपसंहार में रामकथा की व्यापकता, विभिन्न रामकथाओं की मौलिक एकता, प्रक्षिप्त सामग्री की सामान्य विशेषताएँ, विविध प्रभाव तथा विकास का सिंहावलोकन है. यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोष कहा जा सकता है . सामग्री की पूर्णता के अतिरिक्त विद्वान लेखक ने अन्य विद्वानों के मतों की यथास्थान परीक्षा की है तथा कथा के विकास के सम्बन्ध में अपना तर्कपूर्ण विचार भी दिये हैं .वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी है. हिंदी क्या संभवतः किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। हिंदी पट्टी में इस लोकप्रिय विषय पर ऐसे वैज्ञानिक अन्वेषण से धर्म और राजनीति के अनेक मिथक खंडित हो जाते हैं और शोधकर्ताओं को एक दिशा भी मिलती है.
फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के फलैण्डर्स प्रांत के रम्सकपैले नामक गाँव में एक सितंबर 1909 को हुआ। लूवेन विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग कॉलेज में बुल्के ने वर्ष 1928 में दाखिला लिया. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के क्रम में ही उन्होंने संन्यासी बनने का निश्चय किया. इंजीनियरिंग की दो वर्ष की पढ़ाई पूरी कर वे वर्ष 1930 में गेन्त के नजदीक ड्रॉदंग्न नगर के जेसुइट धर्मसंघ में दाखिल हो गए. जहाँ दो वर्ष रहने के बाद आगे की धर्म शिक्षा के लिए हॉलैंड के वाल्केनबर्ग के जेसुइट केंद्र में भेज दिए गए.यहाँ रहकर उन्होंने लैटिन, जर्मन और ग्रीक आदि भाषाओं के साथ-साथ ईसाई धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया. वाल्केनबर्ग से वर्ष 1934 में जब बुल्के लूवेन की सेमिनरी में वापस लौटे तब उन्होंने देश में रहकर धर्म सेवा करने के बजाय भारत जाने का निर्णय किया।
1935 में जब वे भारत पहुँचे तो उनकी जीवनयात्रा का एक नया दौर दार्जिलिंग के संत जोसेफ कॉलेज और आदिवासी बहुल गुमला के संत इग्नासियुश स्कूल में विज्ञान विषय के शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया. तब गुलाम भारत में स्वतन्त्रता की अंतरधारा बह रही थी. कुछ ही दिनों में उन्होंने महसूस किया कि जैसे बेल्जियम में मातृभाषा फ्लेमिश की उपेक्षा और फ्रेंच का वर्चस्व था, वैसी ही स्थिति भारत में थी जहाँ हिंदी की उपेक्षा और अंग्रेजी का वर्चस्व था। इसी भावना से उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए किया और फिर वहीं से 1949 में रामकथा के विकास विषय पर पीएचडी किया जो बाद में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ के रूप में पूरी दुनिया में चर्चित हुई. विज्ञान के पूर्व शिक्षक की रांची के प्रतिष्ठित संत जेवियर्स महाविद्यालय के हिंदी विभाग में वर्ष 1950 में उनकी नियुक्ति विभागाध्यक्ष पद पर हुई और इसी वर्ष उन्होंने भारत की नागरिकता ली.
वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे प्रामाणिक माना जाता है. मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘द ब्लू बर्ड’ का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया. इसके अलावा उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद किया. लंबे समय तक संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे. बाद में बहरेपन के कारण कालेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई. इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे.
डा. कामिल बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप, डॉ. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणास्रोत मानते हुए वे अपनी आत्मकथा ‘एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2’ में लिखा है- ‘‘सन् 1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया.’ भारतीयता (भारत की स्वस्थ परंपराओं) के अनन्य भक्त कामिल बुल्के, बौद्धिक और आध्यात्मिक होने के साथ-साथ प्रभु ईसा मसीह के भी परम भक्त थे साथ ही गोस्वामी तुलसीदास की राम भक्ति के सात्विक और आध्यात्मिक आयाम के प्रति उनके मन में बहुत आदर था. उनका कहना था, ‘‘जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है ईसा, हिंदी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है… जहां तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता। मैं तो समझता हूं कि भौतिकतावाद, मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है। मैं यह भी मानता हूं कि ‘धार्मिक विश्वास’ तर्क-वितर्क का विषय नहीं है.’
आकाशवाणी रांची में उनकी एक दुर्लभ भेंटवार्ता संग्रहित है जिसमें फादर बुल्के की भाषा और उच्चारण की शुद्धता आज भी मानक की तरह नए प्रसारकों के लिए मार्गदर्शक की तरह है. रांची के लोग उनको एक अच्छे प्राध्यापक ही नहीं एक अच्छे इंसान के रूप में हमेशा याद रखेंगे जिनका संस्मरण और संग्रह पुरुलिया रोड के मनरेसा हाउस में संग्रहित है.छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने करीब 29 किताबें लिखी. भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्मभूषण दिया. एक विदेशी मूल के विद्वान ने जो इतिहास रचा उसे आगे बढ़ाने या नया इतिहास रचने के लिए जो प्रयास गंभीरता से किए जाने की आवश्यकता थी वह कम दिखाई पड़ती है.दिल्ली में 17 अगस्त 1982 को गैंग्रीन की वजह से उनके निधन से साहित्य और समर्पण के एक अध्याय का अंत हो गया.
सुनील बादल
सुनील बादल 42 वर्षों से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हैं . झारखंड और भारत की पत्र पत्रिकाओं में लेख और कॉलम छपते रहे हैं .एक उपन्यास सहित झारखंड पर केंद्रित दस सम्मिलित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं.