कम करनी थी भीड़ बढ़ाते चले गए

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15 नवम्बर 2022 को भारत में झारखंड राज्य की स्थापना के 22 वर्ष पूरे हो गए। लंबे संघर्ष के बाद बड़ी उम्मीदों से बना ये राज्य आज भी अपनी क्षमताओं के समुचित उपयोग और प्रतिबद्ध नेतृत्व के इंतज़ार में है। रांची के लेखक-पत्रकार सुनील बादल का आलेख।


झारखंड राज्य बनने के समय अनेक पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों और अन्य विशेषज्ञों ने कहा था कि झारखंड बहुत बड़ी संभावनाओं वाला राज्य बनेगा और अति उत्साह में जर्मनी के रूर इलाके के समकक्ष बताया गया था. यह भी कहा गया था कि यह सबसे समृद्ध राज्य होगा जिसके पास अकूत खनिज संपदा है पर अस्थिर सरकारों, राजनीतिक प्रयोगों और अदूरदर्शिता के साथ परंपरागत पुरातन पंथी तदर्थवाद ने झारखंड की गति न सिर्फ धीमी कर दी बल्कि छोटी-छोटी समस्याओं में उलझा कर इसे एक ऐसा राज्य बना दिया जो आज भी इसके साथ अस्तित्व में आए राज्यों से न सिर्फ पीछे हैं बल्कि अकूत धन संपदा के बाद भी एक दरिद्र राज्य के रूप में जाना जाता है. नीतिगत मामलों की बात करें तो सबसे बड़ी भूल जो राजनेताओं और नीति निर्धारकों से हुई वह यह कि सारी विकास योजनाओं को शहर केंद्रित रखा गया जिस कारण छोटे कस्बों से लेकर राजधानी रांची तक भीड़ बढ़ती गई और साथ ही समस्याएं भी! कहीं भूगर्भ जल नीचे चला गया तो कहीं ट्रैफिक जाम की इतनी बड़ी-बड़ी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं कि सरकार के हाथ पैर फूल रहे हैं . वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में रिंग रोड, बाइपास जैसे उपाय किए जा रहे हैं लेकिन मौलिक विचार अभी तक किसी ने नहीं किया कि जब स्थान सीमित हो और आवश्यकताएं बहुत हों तो विकास को शहर केंद्रित न कर आसपास के क्षेत्रों तक बढ़ा देना चाहिए. इसका सटीक उदाहरण दिल्ली एनसीआर, नोएडा और गुरुग्राम है . बेंगलुरु, मुंबई जैसे महानगर भी अच्छी यातायात व्यवस्था के कारण डेढ़ 200 किलोमीटर तक से अपने कामकाजी लोगों को आने-जाने की सुविधाएं देते हैं और मुख्य शहर के ऊपर दबाव कम होता जा रहा है, साथ ही ग्रामीण क्षेत्र भी विकसित हो रहे हैं जिससे उनकी भी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है और छोटे उद्योग धंधों या व्यवसाय से एक बड़ा उद्योग स्थापित हो रहा है.

झारखंड की बड़ी समस्या यातायात की है अभी तो राजधानी रांची में कुछ फ्लाईओवर बनने शुरू हुए हैं जिन्हें आज से 20 साल पहले बनना चाहिए था इसी प्रकार पटना में मेट्रो शुरू होने जा रहा है , जयपुर में शुरू हो चुका लगभग सभी राजधानियों ने इस पर विचार किया लेकिन झारखंड कभी मोनोरेल तो कभी कुछ इस तरह के प्रयोगों से ना सिर्फ जनता के पैसे बर्बाद करता रहा बल्कि समय भी गंवाता गया. यदि दिल्ली एनसीआर से सीख लेकर झारखंड में मेट्रो शुरू कर दिया जाता और राजधानी रांची को डाल्टेनगंज, बोकारो, जमशेदपुर, धनबाद, चाईबासा और कोडरमा जैसे शहरों से धीरे-धीरे फेज वाइज जोड़ दिया जाता तो जैसे नोएडा और गुरुग्राम तेजी से विकसित हुए उसी प्रकार एक विकास की नई रोशनी चारों तरफ बढ़ सकती थी, लेकिन किसी ने इस पर विचार तक नहीं किया. इसी प्रकार नए सरकारी कार्यालय मुख्य शहरों में ही बनाए जा रहे हैं जिससे भूमि भवन की रजिस्ट्री इलाज और अन्य सरकारी कामकाज के लिए अनावश्यक रूप से शहरों के ऊपर दबाव बढ़ता जा रहा है. होना यह चाहिए था कि राजधानी रांची हो या कोई भी झारखंड का शहर उसे व्यवहारिक दृष्टिकोण के आधार पर धीरे-धीरे मुख्य शहर से बाहर की तरह विकसित करना चाहिए था जहां सरकारी कार्यालय खुलते वहां अपने आप शहरीकरण हो जाता, बाजार अपने आप विकसित हो जाते सरकारों को सिर्फ यातायात बिजली और सुरक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करानी थी. इसी प्रकार जितनी भी सरकारें आईं उन्होंने पेयजल और अग्निशमन जैसी सुविधाओं के नवीनीकरण पर तो कार्य किया, पाइपलाइन बिछाई लेकिन दशकों पहले से जो जलापूर्ति के बड़े-बड़े स्त्रोत डैम आदि थे उनको कभी साफ तक करने की जहमत नहीं उठाई. इसकी वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में दूरदराज से पानी लाने जैसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए थी और दबाव कम करने के लिए जहां पानी हो वहीं पर शहरों को धीरे-धीरे विकसित करना चाहिए था, इन उपायों से बाहर से आने वाली बड़ी कंपनियां जो लाखों करोड़ों रुपए निवेश करने की इच्छा रखती है उन्हें भी सुविधा होती लेकिन यह सब करने के बजाय स्थानीय राजनीति में उलझ कर लगभग सभी सरकारें छोटे-छोटे मुद्दों पर ही केंद्रित रहीं.

बेंगलुरु, पुणे, चेन्नई जैसे अनेक शहर यहां तक कि बहुत हद तक कोलकाता भी आईटी क्षेत्र के कारण समृद्ध हुए हैं. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अपने यहां शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की पूरी संभावनाओं के बावजूद बच्चे बाहर उच्च शिक्षा के बाद नौकरी के लिए पलायन कर न सिर्फ करोड़ों रुपए का राजस्व बाहर भेज रहे हैं बल्कि राज्य की प्रतिभाएं अन्य स्थानों पर जाकर उन राज्यों को समृद्ध कर रही हैं जिनमें शोषण की शिकार आदिवासी महिलाएं भी शामिल हैं. इस विषय पर गंभीरता से कार्य करने के बजाए बाहर से आने वाले निवेशकों को प्रोत्साहित नहीं किया गया या उनसे मोलभाव जैसे रणनीति ही ज्यादा चलती रही जिस कारण झारखंड वह गति नहीं पकड़ पाया जो इसे पकड़ना चाहिए था.

इसमें कहीं न कहीं भ्रष्टाचार, नियत में खोट और अदूरदर्शिता थी और सबसे बड़ा कारण तदर्थवाद था . अगर कहीं सड़क बनानी है तो सड़क बनाने का आदेश दे दिया गया उसके बाद लोगों को याद पड़ा कि नाली नहीं है तो सड़क काटकर नाली बनाई गई उसके बाद याद पड़ा कि उसने पाइप लाइन बिछाना था तो फिर से सड़क खोदी गई उसके बाद याद पड़ा कि गैस पाइपलाइन की आवश्यकता है, केबल की आवश्यकता है ! इस प्रकार बिना शोध के, बिना चिंतन के अंधाधुंध विकास और तदर्थवाद के कारण वे कार्य न सिर्फ कई गुना महंगे हो जाते हैं बल्कि एक ही काम को कई कई बार कर करदाताओं के पैसे बर्बाद किए जाते हैं और नए कार्य करने के लिए हमारे पास संसाधनों की कमी हो जाती है. जबकि विकसित राज्यों में इस पर चिंतन होता है विदेशों से देखकर आने वाले लोग अपनी विचारधारा और दृष्टि से लोगों को समृद्ध करते हैं लेकिन झारखंड में ऐसे विशेषज्ञों को तरजीह नहीं दी गई. अभी भी समय नहीं बीता है यदि संक्षिप्त के साथ-साथ दीर्घकालीन योजनाएं बनाई जाएं और विशेषज्ञों को बुलाकर उनकी राय ली जाए, अध्ययन किया जाए कि अन्य राज्यों ने किस प्रकार अपने को समृद्ध किया है तो बहुत कुछ किया जा सकता है.

सुनील बादल
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सुनील बादल 42 वर्षों से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हैं . झारखंड और भारत की पत्र पत्रिकाओं में लेख और कॉलम छपते रहे हैं .एक उपन्यास सहित झारखंड पर केंद्रित दस सम्मिलित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं.

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