राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच टकराव आम बात है. मगर हाल के वर्षों में ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. इसमें गलती हमेशा एक पक्ष की नहीं होती, मगर तय रूप से ऐसी स्थिति उन्हीं राज्यों में होती है, जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकार होती है.
ताजा प्रसंग केरल का है, जहां काफी दिनों से राज्य सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच टकराव की खबरें आती रही हैं. अब महामहिम श्री खान ने चेतावनी दी है कि वह मंत्रियों को बरखास्त कर सकते हैं. ताजा खबर यह है कि केरल हाईकोर्ट ने कुलाधिपति की हैसियत से श्री खान को केरल विश्विद्यालय में सीनेट के चार सदस्यों की नियुक्ति करने से रोक दिया है. हालांकि राज्यपाल द्वारा की गयी नयी नियुक्तियों को निरस्त करने का अनुरोध कोर्ट ने नहीं माना.
आरिफ मोहम्मद खान और राज्य सरकार के बीच तल्खी की स्थिति लगातार बनी रही है. श्री खान आरोप लगाते रहे हैं कि राज्य की वाम सरकार राज्यपाल की शक्तियां छीन रही है. उनकी सहमति के बिना विश्वविद्यालयों में नियुक्तियां कर रही है. सत्तारूढ़ दल के पसंदीदा लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया जा रहा है. उन्होंने कुलाधिपति की जिम्मेदारियों से इस्तीफा देने तक की धमकी दे डाली थी.
उसके पहले विवादास्पद सीएए कानून के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव पारित किये जाने पर भी श्री खान ने आपत्ति जतायी थी. फिर तीन कृषि कानूनों (जिन्हें अब केंद्र सरकार वापस ले चुकी है) के मुद्दे पर भी ऐसा ही हुआ.
अब उप-राष्ट्रपति बन चुके जगदीप धनकड़ जब पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे, तब राजभवन और राज्य सरकार के बीच ही सतत टकराव की स्थिति बनी हुई थी. राज्यपाल तब पूरी तरह भाजपा नेता की तरह व्यवहार करते दिखते थे. उधर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस भी श्री धनकड़ के प्रति परोक्ष रूप से अनादर व्यक्त करने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी. गनीमत कि धनकड़ को ‘प्रोन्नति’ मिल जाने से पश्चिम बंगाल फिलहाल उस अनर्गल टकराव से मुक्त है.
कुछ दिन पहले तमिलनाडु की द्रमुक सरकार ने केंद्र द्वारा कथित रूप से हिंदी थोपे जाने पर विरोध जताया है. राज्य सरकार पहले ही त्रिभाषा फार्मूले को, यानी हिंदी की बाध्यता को मानने से इनकार कर चुकी थी. इस पर राज्यपाल श्री पुरोहित ने कड़ी आपत्ति जतायी. मगर कमाल यह कि इस मामले में तमिलनाडु की भाजपा ईकाई सरकार के साथ है. इससे पता चलता है कि तमिलनाडु में भाषा का प्रश्न कितना संवेदनशील है, या शायद राज्य के भाजपा नेताओं को पता है कि इस मामले में अलग स्टैंड लेना राजनीतिक रूप से नुकसानदेह हो सकता है. भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है. इस तरह महामहिम अकेले पड़ गये हैं.
झारखंड में भी राजभवन और राज्य सरकार का रिश्ता सहज नहीं है. ताजा मुद्दा चुनाव आयोग के उस बंद लिफाफे को लेकर बना है, जिसके मजमून का किसी को पता नहीं है. मामला मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा की सदस्यता से सम्बद्ध है. इस मामले में राजभवन की चुप्पी पर सत्तारूढ़ झामुमो लगातार सवाल कर रहा है.
कुछ महीने पहले आदिवासी सलाहकार परिषद (टीएसी) के गठन के मामले में विवाद हुआ. राज्य सरकार ने इसकी नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका समाप्त कर दी. भाजपा ने एतराज किया. पूर्व राज्यपाल श्रीमती द्रौपदी मुर्मू (अब राष्ट्रपति) ने भी आपत्ति की थी. पर सरकार अड़ी रही. तर्क दिया कि छत्तीसगढ़ में भी ऐसा किया जा चुका है, यानी यह असंवैधानिक नहीं है. भाजपा अब भी इसे मुद्दा बनाये हुए है. नये राज्यपाल रमेश बैंस ने भी इसे लेकर सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है, तकरार जारी है.
सवाल है कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के रहते, राज्यपाल, जो केंद्र द्वारा नियुक्त और उसका प्रतिनिधि होता है, के पास ऐसे अधिकार होने ही क्यों चाहिए? राज्य सरकार के फैसले भले ही राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद ही मान्य और लागू होते हैं, लेकिन कोई राज्यपाल यदि जानबूझ कर और बदनीयती से सरकार के हर फैसले को किसी बहाने लटकाने पर आमादा हो जाये तो! राज्यपाल की विशेष भूमिका की जरूरत तभी पड़ती है, जब राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति हो या सरकार का बहुमत संदिग्ध हो जाये. सामान्य स्थिति में राज्यपाल को सरकार के फैसले को स्वीकृति देनी ही पड़ती है. अधिक से अधिक वह एक बार किसी फैसले या विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है. लेकिन यदि सरकार उस विधेयक को दोबारा उसी रूप में भेजती है तो राज्यपाल कुछ नहीं कर सकता. हां, नीयत बद हो तो ऐसे विधेयकों या फैसलों को लंबे समय तक लटका कर जरूर रह सकता है. मगर एक लोकप्रिय, चुनी हुई सरकार के फैसलों को इस तरह लटकाने का अधिकार राज्यपाल (केंद्र के एजेंट) को क्यों होना चाहिए? इसी तरह विश्वविद्यालयों सहित अन्य संस्थाओं में नियुक्तियों में राज्यपाल की रजामंदी अंतिम क्यों होनी चाहिए?
माना जाता है कि राज्यपाल दलीय भावना या दुर्भावना से परे होता है. मगर यह महज धारणा है या अपेक्षा कि ऐसा होना चाहिए. सच सबों को पता है. व्यवहार में वह केंद्र में सत्तारूढ़ दल के सदस्य और प्रतिनिधि की भूमिका में ही होता है.
आजादी के बाद करीब दो दशकों तक जब केंद्र और राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें हुआ करती थीं, तब सब कुछ ठीक था. उसके बाद स्थिति बदल गयी. केंद्र में जिस दल की भी सरकार रही, उसने राज्यपाल का इस्तेमाल राज्य सरकार को परेशान और अस्थिर करने के लिए किया. मनमाने तरीके से धारा 356 का इस्तेमाल कर राज्य सरकार को बर्खास्त करने के लिए भी. बेशक इस सबकी शुरुआत का श्रेय कांग्रेस को ही जाता है. रामलाल, जीडी तपासे और रोमेश भंडारी आदि के कारनामे इतिहास में दर्ज हैं. मगर बीते सात आठ वर्षों में राज्यपाल पद पर आसीन महानुभावों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है.
राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच मतभेद और रिश्तों में तनाव लगभग हर उस राज्य में है, जहां गैर भाजपा दलों की सरकार है. और यह कोई नयी बात नहीं है. लेकिन अब लिहाज खत्म हो रहा है, तो स्थिति और बदतर हो रही है. इसका एक कारण तो मूल्यों और नैतिकता का क्षरण है. नतीजा, विपक्ष शासित राज्यों में नियुक्त राज्यपाल अक्सर विवादों में रहने लगे हैं.
राज्यपाल का कोई राजनीतिक ‘उपयोग’ न हो, तो भी हर राज्य की राजधानी में एक विशाल परिसर में बना राजभवन केंद्र में सत्तारूढ़ दल के ‘रिटायर्ड’ नेताओं का विश्राम स्थल ही होता है. वैसे रिटायरमेंट भी स्थायी नहीं होता; यदि ‘आलाकमान’ की कृपा हो, तो पुनः सक्रिय राजनीति में आने की गुंजाइश रहती ही है। शायद इस उम्मीद और मंशा से भी कुछ ‘महाहमहिम’ राजभवन में होते हुए भी उसी अंदाज में सक्रिय रहते हैं!
इन हालात में राज्यपाल के विशेषाधिकारों और भूमिका की समीक्षा जरूरी लगने लगी है. यह भी विचारणीय है कि राज्यपाल का पद क्या इतना अपरिहार्य है? आज के डिजिटल युग में राज्य के हालात जानने के लिए राज्यपाल के रिपोर्ट की जरूरत भी नहीं है. न ही राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए राज्यपाल की अनुशंसा की. तो हर राज्य की राजधानी में राज्यपाल नामक संस्था के खर्चीले तामझाम (जिसका खर्च राज्य सरकार वहां करती है) की जरूरत क्या है? क्या इसका कोई विकल्प नहीं हो सकता?
Srinivas
Srinivas is a Ranchi (Jharkhand, India) based veteran journalist and activist. He regularly writes on contemporary political and social issues.