समान नागरिक संहिता बनाने, खास कर जल्दबाजी के पीछे इस सरकार की दूषित मंशा के तमाम संदेहों के बावजूद सिद्धांतत: मैं इस विचार से सहमत हूं.
यूसीसी से अलग अलग धार्मिक समुदायों को क्या आपत्ति है, क्या दिक्कत हो सकती है, इस पर संजीदगी से विचार होना चाहिए. ऐसी आपत्ति सिर्फ मुसलिम समुदाय को नहीं है, झारखंड के कुछ आदिवासी नेताओं-संगठनों ने भी आपत्ति की है. उनकी मूल चिंता यह है कि यूसीसी लागू होने पर स्त्री को भी पैतृक संपत्ति पर अधिकार मिल जायेगा, जो अभी नहीं मिलता! वैसे सबसे मुखर विरोध मुसलिम समाज की ओर से ही होता रहा है. अब भी हो रहा है. हालांकि परेशानी कुछ हिंदू समुदायों को भी हो सकती है, मगर मोटामोटी हिंदुओं को शायद ऐसा लगता है कि हमारे ही क़ानून सबों के लिए हो जायेंगे.
लेकिन इस संदर्भ में मुसलिम समाज के बुद्धिजीवियों-जानकारों से चंद सवाल करना चाहता हूं- कि ‘मुसलिम’ देशों के अलावा, खास कर पश्चिमी मुल्कों- अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस आदि- में जो मुसलमान रह रहे हैं, वहां के नागरिक बन गए हैं, उनको वहां लागू समान संहिता से कोई परेशानी है? हां, तो क्या वहां वे ‘मुसलिम पर्सनल लॉ’ की मांग करते हैं? इसके लिए कभी किसी आंदोलन की खबर तो नहीं सुनी है. यानी वे वहां के कानून से एडजस्ट कर चुके हैं. तब यदि भारत में ही यूसीसी बन जायेगा तो कौन-सी आफत आ जायेगी? उनको इस बात पर भी बोलना चाहिए कि अनेक मुसलिम देशों में भी इस्लामी कानूनों में जो सकारात्मक बदलाव हो चुके हैं, क्या वे ‘इसलाम विरोधी’ हैं? हां, तो मुसलिम धर्म गुरुओं ने उसका कभी विरोध किया? ऐसे विश्व व्यापी विरोध की कोई जानकारी तो नहीं है. तो कम से उस हद तक भी बदलाव से आपको आपत्ति क्यों है?
अब इसके दूसरे पहलू पर आते हैं-
गोवा में लागू गीयूसीसी का सच
मुझे लगता था कि गोवा में अभी भी पुर्तगाली शासन के दौरान बनी समान संहिता लागू है. यह भी कि भारत के एक राज्य में किसी रूप में यूसीसी लागू है; वहां के मुसलमानों ने भी, गोवा के भारत का हिस्सा बन जाने के बाद भी, उसे बदलने की मांग नहीं की, तो शेष भारत में भी वह क्यों नहीं लागू हो सकता. मगर गोवा में बस गये साथी कुमार कलानंद मणि ने जो बताया, उससे लगा कि मेरी धारणा पूरी तरह सही नहीं थी. उन्होंने लिखा- “…गोवा की समान नागरिक संहिता भी ‘समान’ नहीं है. कैथोलिक के लिए नियम अलग और बाकियों के लिए अलग. मुस्लिम भी हिंदू शास्त्र के नियमों के द्वारा ही प्रशासित होते हैं. पर कितनों को पता है कि गोवा में इसी नागरिक संहिता के तहत हिंदू मर्दों को दो शादी करने की अनुमति है? इसके लिए दो शर्त है – एक, पहली पत्नी 25 साल की उम्र तक कोई बच्चा नहीं जने; और दो- अगर वह 30 साल की उम्र तक कोई नर बच्चा नहीं जने. अर्थात अगर पहली पत्नी 25 की उम्र तक बच्चा नहीं जन्मती या फिर 30 की उम्र तक अपने पति के लिए नर संतान नहीं जन्मती तो उसका पति दूसरी शादी कर सकता है और दोनों पत्नियों को रख सकता है. कितनी विचित्र नागरिक संहिता है!” फिर भी यह तो तय है कि हिंदू पुरुष को सशर्त दूसरी शादी की अनुमति के बावजूद बहु-विवाह पर रोक है, मुसलिमों के लिए भी; और वे पुर्तगाली शासन के समय से उसे मान रहे हैं.
अभी डॉ आम्बेडकर के एक लेख का अंश पढ़ने को मिला, जिसमें उन्होंने क़ानून द्वारा सामाजिक सुधार की सीमा बताई है. उनके मुताबिक कानून बन जाने पर भी वह तब तक लागू नहीं हो पाता, जब तक उसे समाज की स्वीकति न हो. इस संदर्भ में उन्होंने दहेज़ प्रथा, छुआछूत, जातीय आधार पर भेदभाव विरोधी कानूनों का उदहारण देकर कहा है कि आप एक व्यक्ति को दंडित कर सकते हैं, पर जहां पूरा समाज ही कानून को नहीं मानने पर आमादा हो, आप क्या कर लेंगे? लगभग इसी आशय के विचार गांधी जी के भी हैं.
यह भी गौरतलब है कि कानूनन हर वयस्क युवा को अपनी पसंद से विवाह करने का अधिकार है. अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक शादी भी कानून सम्मत है. धर्मांतरण का अधिकार है. मगर व्यवहार में जो स्थिति है, हम जानते हैं. अपनी पसंद का भोजन करने पर भी दंगा फसाद और माब लिंचिंग हो रही है! कपड़े से दंगाइयों की पहचान हो रही है!
मगर इन तथ्यों और तर्कों के बावजूद क्या यूसीसी को अनावश्यक मान लिया जाये? आखिर तो कानून के द्वारा ही ‘सती प्रथा’ पर रोक लग सकी. ‘हिदू कोड बिल’ भी बना और लागू हुआ, जिसे पूरी तरह अप्रभावी नहीं कहा जा सकता. बाल विवाह भी पहले की तरह धडल्ले से शायद नहीं हो रहे हैं. दलितों-आदिवासियों और अब ‘पिछड़े’ समुदायों को आरक्षण भी कानून से ही मिला. समाज की जड़ हो चुकी व्यवस्था और सड़ी गली परम्पराएँ अपने आप समय के साथ ठीक हो जायेंगी, ऐसा कहना और मानना सही नहीं लगता. समाज के अगुआ ऐसा प्रयास करते रहें कोई हर्ज नहीं. मगर राजनीति में शामिल लोगों का भी दायित्व है किअपने दैनंदिन कर्म से; और क़ानून के माध्यम से भी समाज में सकारात्मक बदलाव का प्रयास करें. हो उल्टा रहा है. भारत सहित पूरे विश्व में कर्मकांड और त्याग दी गयी परंपराओं का गुणगान होने लगा है. तो समाज को यही पसंद है, इस तर्क से इस नकारात्मक बदलाव का समर्थन किया जा सकता है?
यूसीसी का बुनियादी या एक बड़ा मकसद मेरी समझ से यह है कि स्त्री को समान अधिकार मिले. किसी भी धार्मिक समुदाय की परंपरा और नियमों के कारण उसके साथ भेदभाव जारी नहीं रहना चाहिए. मुसलिम सहित कुछ आदिवासी समुदायों में जारी बहुविवाह की प्रथा के उनकी सामुदायिक-धार्मिक पहचान या परंपरा के नाम पर जारी रहने का कोई औचित्य नहीं है.
जो भी हो, यूसीसी जरूरी लगते हुए भी, इसे बनाने में सावधानी और गंभीर विचार-विमर्श की जरूरत है. आनन-फानन में किसी राजनीतिक मकसद से इसे लागू करने के प्रयास का विरोध होना चाहिए. इस सरकार की मंशा पर संदेह का कारण भी है. ‘एकबारगी तीन तलाक’ पर रोक एक सही निर्णय था, लेकिन उस समय यह जताने का प्रयास किया गया कि देखो- मुसलिम समाज कितना गलत और गंदा है, कि ‘बेचारी’ मुस्लिम औरतें कैसी गुलामी में जी रही थीं और हमने उनको आजाद करा दिया. खुद मोदी जी ‘मुसलिम बहनों की पीड़ा’ से व्यथित थे. यह अंदाज गलत है. इसमें बदनीयती दिखती है. कुछ ऐसा ही ‘शाहबानो’ केस के समय भी हुआ था. सच यही है कि तमाम अच्छे कानूनों के बावजूद हिंदू महिलाएं कई तरह की गुलामी झेल रही हैं. फिलहाल उस बात को रहने देते हैं.
सरकार की मंशा पर संदेह करने का एक कारण तो यह भी है कि हाईकोर्ट जज के रूप में जिस व्यक्ति ऋतुराज अवस्थी ने हिजाब पर बैन संबंधी कर्नाटक की भाजपा सरकार के फैसले को सही ठहराया था, अब वही सज्जन 22वें लॉ कमीशन के अध्यक्ष हैं! वही समान नागरिक संहिता के मुद्दे को आगे बढ़ा रहे हैं.
मगर सरकार की पहल का विरोध सिर्फ इस कारण नहीं होना चाहिए कि ऐसा मोदी सरकार करने जा रही है. या इसलिए भी नहीं कि मुसलमान या कुछ अन्य समुदाय इसके विरोध में हैं. हमारे विरोध के पीछे ठोस तर्क होना चाहिए.
Srinivas
Srinivas is a Ranchi (Jharkhand, India) based veteran journalist and activist. He regularly writes on contemporary political and social issues.