परिसीमन एक संविधानसम्मत नियमित प्रक्रिया है और जरूरी भी है। लेकिन इससे जुड़े एक पहलू पर ध्यान नहीं दिया गया, तो इसका दूरगामी नकारात्मक असर पड़ सकता है. उत्तर बनाम दक्षिण का मुद्दा तो बन ही सकता है, इनके बीच पहले से बनी हुई दरार कुछ और चौड़ी हो सकती है.
परिसीमन की जरूरत इसलिए पड़ती है कि एक समय के बाद आबादी बढ़ जाती है, इसलिए लोकसभा- विधानसभा क्षेत्र की परिधि/आकार बदलने और सदस्य संख्या बढ़ाने की जरूरत पड़ती है. कोरोना संकट के कारण यह दुरूह प्रक्रिया टाल दी गयी थी, जो अगले संसदीय चुनावों के बाद शुरू होगी. उसके पहले जनगणना, जो दो साल पहले होनी थी. उसके बाद बढ़ी हुई आबादी के हिसाब से लोकसभा की सदस्य संख्या बढ़नी है. जाहिर है कि जिस क्षेत्र में आबादी जितनी बढ़ी है, सीटों की संख्या भी उसी अनुपात में वहीं बढ़ेगी. इसका सीधा मतलब यह कि जिन इलाकों में आबादी तुलना में कम बढ़ी, उनको इस परिसीमन से नुकसान होगा, यानी उनकी सीटें कम बढ़ेंगी और जिन राज्यों और इलाकों में आबादी ज्यादा बढ़ी, उनके हिस्से में ज्यादा सीटें आ जाएगी. तमाम आंकड़े बताते हैं कि दक्षिणी राज्यों में आबादी में इजाफा वैसा नहीं हुआ, जैसा उत्तर भारत में हुआ. इसका मतलब यह कि दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत में लोकसभा सीटों में ज्यादा बढ़ोत्तरी होगी.
गत 22 सितंबर को भास्कर में एक खबर छपी थी- ‘दक्षिण के मुकाबले उत्तर में सीटें दोगुनी बढ़ सकती हैं.’ खबर के साथ परिसीमन के बाद सीटों में होनेवाले अंतर का ब्यौरा भी है. उसके अनुसार उत्तर प्रदेश में मौजूदा 80 सीटें परिसीमन के बाद 147 हो जायेंगी. राजस्थान में 25 से 50. बिहार में 40 से 76. झारखंड में 14 से बढ़ कर 24. हरियाणा 10 से 18, छतीसगढ़ 11 से 18 और दिल्ली की सीटें 7 से बढ़ कर 12. इस तरह उत्तर भारत की मौजूदा 216 सीटें बढ़ कर 398 (+182) हो जायेंगी. वृद्धि 84.2%. इसके मुकाबले दक्षिण की मौजूदा सीटें 129 से 184 (वृद्धि 42.6%) हो जायेगी. इस तरह उतर और दक्षिण का अभी जो अंतर (216 बनाम 129 से) 97 का है, वह बदल कर 214 (398 बनाम 184) हो जायेगा. अन्य महत्वपूर्ण राज्यों में भी बदलाव होगा. महाराष्ट्र- 48/82. प. बंगाल- 42/67. गुजरात-26/44. मगर उत्तर-दक्षिण का अंतर गौरतलब है. वैसे महाराष्ट्र और गुजरात भी एक तरह से उत्तरी राज्य ही माने जाते हैं. कायदे से यह नियमानुसार ही होगा, लेकिन क्या इससे असंतुलन पैदा नहीं होगा? क्या परिसीमन के बाद, यानी आबादी में वृद्धि या कमी होने पर सीटों को बढ़ाने या घटाने का कोई और पैमाना नहीं खोजा जा सकता? क्या ये खोजना जरूरी नहीं, ताकि इस असंतुलन से बचा जा सके?
दोनों क्षेत्रों में आबादी की वृद्धि में इस अंतर का सहज कारण तो यही हो सकता है कि दक्षिण के जिन राज्यों ने परिवार नियोजन, जो राष्ट्रीय लक्ष्य था, की योजना पर बेहतर ढंग से अमल किया, यानी अपने यहां आबादी पहले की रफ्तार से नहीं बढ़ने दी. लेकिन उनकी सीटों में भी कम वृद्धि होगी. इस तरह परिवार नियोजन को कारगर ढंग से लागू करने का इनाम मिलने के बजाय उनको एक तरह से दंड मिलेगा. दूसरी ओर जिन राज्यों में आबादी बेतहाशा बढ़ी, यानी जिन राज्यों ने आबादी नियंत्रण को प्राथमिकता नहीं दी, उनको ईनाम मिलेगा. इस तरह कि अब लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व ज्यादा होगा. यह अंतर तो पहले से है, क्योंकि उत्तर की आबादी और उसका क्षेत्रफल अधिक है. लेकिन परिसीमन के बाद यह अंतर और बढ़ जायेगा, जो ऊपर बताया गया है. उत्तर की आवाज अधिक मजबूत होगी, और उसकी तुलना में दक्षिण की कुछ और कमजोर.
ध्यान रहे कि सत्ता का केंद्र उत्तर (दिल्ली) में होने से पहले से ही दक्षिण में उत्तर के प्रति संशय का भाव रहा है. हिंदीपट्टी में ‘हम ही भारत’ होने के भाव के कारण भी यह एहसास लगातार रहा है, एक किस्म के तनाव का कारण भी.
स्पष्ट है कि इस परिसीमन के परिणामस्वरूप लोकसभा का संतुलन उत्तर की ओर थोड़ा और झुक जायेगा. ऐसी स्थिति में दक्षिणी राज्य अगर उत्तर प्रदेश की सीट बढ़ाने का विरोध करें और यह मांग करें कि आबादी कम होने pके कारण हमारी सीटें कम होने के बजाय बढ़नी चाहिए तो क्या उनकी यह मांग नाजायज होगी?
यहां यह भी याद रखने की जरूरत है कि भाषा को लेकर भी उत्तर और दक्षिण के बीच एक तरह का दुराव बना रहा है. कभी ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ का नारा भी लगता था. दक्षिण, ख़ास कर तमिलनाडु में इसका गलत संदेश गया. हिंदी विरोधियों को मौका मिल गया, इसे हिंदी को थोपने के प्रयास के रूप में; और जो हिंदी बिना किसी राज्याश्रय के देश की सहज संपर्क भाषा है, उसे उत्तर की, शासकों की भाषा के रूप में देखा गया.
देश के नियंताओं (यह बात किसी एक दल को लक्ष्य करके नहीं कही जा रही है) को परिसीमन से जुड़े इन पहलुओं का एहसास होना चाहिए. हालांकि आशंका यह है कि कहीं हमारे नेतागण इसे अपनी अतिरिक्त अहमियत मान कर और न इतराने लगें. ऐसा हुआ तो देश को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

Srinivas
Srinivas is a Ranchi (Jharkhand, India) based veteran journalist and activist. He regularly writes on contemporary political and social issues.