बाघ यानी Panthera tigris दुनिया का सबसे बड़ा विडालवंशी है। यह हमेशा से पूरी दुनिया को चकित करता रहा है। अपने बलिष्ठ शरीर, अपनी शानदार चाल, शिकारी प्रवृत्ति और अपने गरिमापूर्ण सौन्दर्य से यह इंसानों को आकर्षित करने के साथ साथ भयभीत भी करता है। यह जानवर भारत के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि दुनिया में बाघों की कुल संख्या का 70 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा भारत में ही है।
दुनिया भर में अभी बाघों की नौ उप-प्रजातियाँ मौजूद हैं। वजन और आकार के लिहाज से साइबेरियन या अमूर टाइगर सबसे बड़े हैं, जिनका वजन 320 किलोग्राम तक हो सकता है। इसके बाद हैं भारत के बाघ, जिन्हें रॉयल बंगाल टाइगर भी कहते हैं। इनमें नरों का वजन 260 किलोग्राम और मादाओं का वजन लगभग 150 किलोग्राम तक हो सकता है। सिर के साथ पूरे शरीर की लम्बाई पौने 1.8 मीटर से 2.7 मीटर तक हो सकती है। दुनिया में बाघों की अन्य उप-प्रजातियाँ हैं – सुमात्रन टाइगर, इंडोचाइनीज टाइगर, मलायन टाइगर, साउथ चाइना टाइगर। इसके अलावा कैस्पियन, जावन और बाली टाइगर को प्राकृतिक आवासक्षेत्र में विलुप्त मान लिया गया है।
सभी बाघ एकाकी जानवर होते हैं। नर और मादा सिर्फ प्रजनन के लिए मिलन के समय साथ होते हैं। बच्चे लगभग 17 से 24 महीने तक माँ के साथ रहते हैं। बाघिन अकेले ही उनका पालन-पोषण करती है। उसके बाद उन्हें भी अपने बूते पर अपना अलग इलाका ढूंढना पड़ता है। नर शावक दूर चले जाते हैं, मादाओं का इलाका आसपास हो सकता है। अकेले शिकार करने की वजह से बाघों को दबे पाँव शिकार के करीब जा कर अचानक तेज़ी से हमला करना पड़ता है। आकार में काफी बड़ा होने के बावजूद बाघों की फुर्ती देखने लायक होती है। थोड़ी दूर तक झपटते समय इनकी रफ़्तार 60 किलोमीटर प्रति घंटे तक हो सकती है। इनकी छलांग 6 मीटर से अधिक हो सकती है! शिकार की उपलब्धता के हिसाब से बाघों को काफी बड़े इलाके की जरुरत पड़ती है। हर बाघ को 30 वर्ग किलोमीटर से ले कर 150 वर्ग किलोमीटर तक के इलाके की आवश्यकता होती है। नरों का इलाका काफी बड़ा होता है, और उसके इलाके के अन्दर कई मादाएं रह सकती है, लेकिन ये मिलन के समय के अलावा कभी एक-दूसरे को बर्दाश्त नहीं करते। अधिकांश वयस्क बाघ बाघिनो की मौत इलाके की लड़ाई में घायल होने से होती है।
बाघों ने मानव के नियमित शिकारी होने से लेकर उनसे दूर रहने वाला जानवर बनने तथा मनुष्य की अदूरदर्शी शिकारी प्रवृत्तियों की चपेट में आकर विलुप्त होने की कगार तक पहुंचकर फिर मनुष्यों के ही प्रयास से कुछ हद तक अपनी तादाद कायम करने का बहुत लंबा सफर तय किया है।
हम इतिहास पर गौर करें तो भारत के पौराणिक ग्रंथों और ऐतिहासिक आख्यानो में भी बाघ का उल्लेख विभिन्न रूपों में मिलता है। स्पष्ट है कि लगभग 200 साल पहले तक भारत में बाघ और मनुष्यों के बीच बहुत ज्यादा दूरी नहीं थी। बस्तियां जंगलों के आसपास थीं तथा इंसानों और बाघों का आमना-सामना होना बहुत अनोखी बात नहीं थी। परंतु उस समय तक मनुष्यों और वन्यजीवों की संख्या का संतुलन आज की तुलना में काफी बेहतर था। इसलिए बाघों पर इतना दबाव नहीं था कि वे विलुप्त हो जाते।
बाघ शीर्ष परभक्षियों में से एक है और जहां भी इसके आवासक्षेत्र हैं, वहां की पूरी पारिस्थितिकी को संतुलित रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। बाघ जैसे परभक्षी अपने जंगलों में चरने वाले जानवरों की संख्या को नियंत्रित करके पेड़-पौधों की विविधता और वृद्धि को बनाए रखने में बहुत सहायक साबित होते हैं।
भारत में तरह-तरह के जलवायु क्षेत्र हैं जिनमें कुछ बहुत ऊंचे पर्वतक्षेत्रों और मरुस्थल को छोड़ दिया जाए तो लगभग हर इलाके के जंगलों में बाघों का हमेशा से बसेरा रहा है – चाहे वे जंगल सदाबहार हों या पर्णपाती या अन्य। प्रकृति ने हर जीव के शरीर को उसके माहौल के अनुसार बनाया है। बाघों का धारीदार शरीर और उनका विशेष रंग उन्हें घने जंगलों में पेड़ों से छनकर आती धूप के बीच छिपाए रखने में बहुत कारगर साबित होता है।
पर्यावरण और संस्कृति की दृष्टि से बाघ बहुत महत्वपूर्ण हैं, तब भी भारत में उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बाघों के अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा है उनके आवासक्षेत्र के सिकुड़ने और नष्ट होने से। इसके लिए मुख्य रूप से मनुष्य जिम्मेदार हैं, जो जंगलों को काटकर, अवैध घुसपैठ करके और अपनी आर्थिक गतिविधियों के लिए बाघों के आवासक्षेत्र को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर खत्म करते जा रहे हैं। इसके अलावा अवैध शिकार भी बाघों के लिए एक बड़ा खतरा है। पूरी तरह से गैरकानूनी होने के बावजूद काफी आकर्षक अंतरराष्ट्रीय बाजार की वजह से बाघों का अवैध शिकार जारी है। दुनिया के कुछ देशों में बाघों की हड्डियों, खाल और दूसरे अंगों की काफी मांग है, जिससे काफी बड़ा काला धंधा चल रहा है।
बाघों की घटती हुई संख्या को ध्यान में रख कर उनके संरक्षण के लिए कई प्रयास किये गए हैं। इनमें सबसे उल्लेखनीय है प्रोजेक्ट टाइगर, जिसे 1973 में शुरू किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य था बाघों को विलुप्त होने की कगार से वापस लाना। इसके तहत कई टाइगर रिज़र्व की स्थापना, अवैध शिकार रोकने के उपाय और संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों की भागीदारी को बढ़ावा देने जैसे कदम उठाये गए, जो काफी सफल रहे। सरकार ने वन्यजीव संरक्षण कानून के सख्त प्रावधानों को लागू किया है और वन्यजीव के अवैध व्यापार को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय संगठनो के मिल कर काम कर रही है। इन्ही प्रयासों का परिणाम है कि भारत में बाघों की संख्या में लगातार वृद्धि देखने को मिल रही है।
हाल के वर्षों में सामुदायिक भागीदारी बाघ संरक्षण के एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में उभरी है। वन संसाधनों पर स्थानीय समुदायों की निर्भरता को पहचानते हुए इको-टूरिज्म और स्थायी आजीविका कार्यक्रम जैसे पहल हुए हैं। ये प्रयास समुदायों को आर्थिक अवसर प्रदान करते हैं और बाघ के संरक्षण के प्रति जुड़ाव और जिम्मेदारी की भावना को भी बढ़ावा देते हैं। संरक्षण को लाभ से जोड़ने पर स्थानीय समुदाय जंगल के सक्रिय भागीदार और संरक्षक बन जाते हैं, जिससे बाघों के आवासक्षेत्रों को लम्बे समय तक ऐसा बनाए रखा जा सकता है, जो बाघों के रहने के लिए उपयुक्त होने के साथ साथ स्थानीय समुदाय के लिए भी लाभप्रद हो। रणथम्बोर, ताडोबा और पन्ना में ऐसे प्रयासों के कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं। अन्य स्थानों पर भी इसका लाभ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है। राज्य और केंद्र सरकार की पहल से इस दिशा में काफी प्रगति हुई है। रणथम्बोर में टाइगर वॉच संस्था बाघों के अवैध शिकार को रोकने के लिए स्थानीय समुदायों के बीच लम्बे समय से काम कर रही है। संस्था के कार्यकारी निदेशक और कंज़र्वेशन बायोलॉजिस्ट धर्मेन्द्र खाण्डल ने इस काम में आने वाली चुनौतियों का उल्लेख करते हुए बताया कि स्थानीय समुदायों को अवैध शिकार से विमुख करने और संरक्षण के काम से जोड़ने के प्रयासों में सफलता बहुत लम्बे अरसे के बाद देखने को मिलती है। इसके लिए सतत प्रयास आवश्यक है। संरक्षण के लिए काम कर रहे कुछ गैर-सरकारी संगठनों को अपने प्रयासों को जारी रखने के लिए आर्थिक संसाधनों की समस्या का सामना करना पड़ता है।
बाघों के संरक्षण में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है परन्तु चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। बढ़ती मानव आबादी, संसाधनों की बढ़ती मांग और जलवायु परिवर्तन के कारण बाघों के आवासक्षेत्रों पर दबाव बना हुआ है। कैमरा ट्रैपिंग, आनुवंशिक विश्लेषण और स्थानिक मॉडलिंग जैसी तकनीकी प्रगति से बाघों की संख्या की कारगर निगरानी और प्रबंधन में सहायता मिल रही है। भारत में बाघों के लिए सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अवैध शिकार की रोकथाम के उपायों को मजबूत करना, अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाना और सतत विकास को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है।
प्रोजेक्ट टाइगर
भारत में बाघों के संरक्षण में प्रोजेक्ट टाइगर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसकी शुरुआत 1 अप्रैल, 1973 को हुई थी और ये अब भी जारी है। इसका उद्देश्य था बाघों को विलुप्त होने से बचाना। कहा जाता है कि 1947 में भारत में बाघों की संख्या लगभग 40,000 थी, जो अंधाधुंध शिकार की वजह से 1970 के दशक तक 2000 से भी कम रह गई थी। फिर प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत और इसके तहत उठाये गए क़दमों का ही परिणाम है कि भारत में बाघों की तादाद अब 3100 के पार पहुँच गई है।
इस प्रोजेक्ट में शामिल कुछ उल्लेखनीय अभयारण्य हैं – बांदीपुर, कॉर्बेट, अमानगढ़ बफर, कान्हा, मानस, मेलघाट, पलामू, रणथम्बोर, सिमलीपाल, सुंदरबन, पेरियार, सरिस्का, बक्सा, इंद्रावती, नामदाफा, नागार्जुनसागर, दुधवा, कलाकड़, मुंडनथुराई, वाल्मिकी, पेंच, ताडोबा, बांधवगढ़, पन्ना, भद्रा, सतपुड़ा, अन्नामलाई, काजीरंगा, मुदुमलाई, नागरहोल, परम्बिकुलम, सह्याद्री, सत्यमंगलम, पीलीभीत, राजाजी इत्यादि।
बाघिन मछली की कहानी
भारत के कुछ बाघ पूरी दुनिया में मशहूर हो गए। यदि हम प्रसिद्धि और नाटकीय जीवन के दृष्टिकोण से देखें तो रणथम्बोर की एक बाघिन याद आती है, जिसे लोग मछली कहते थे। उसे रणथम्बोर के जंगलों की रानी भी कहा जाता था, क्योंकि उसने वहां काफी समय तक दबदबा बनाए रखा और अब भी उसकी वंशरेखा उन जंगलों में दहाड़ रही है। अनुमान है कि रणथम्बोर के जंगल के बाघों की आधी तादाद मछली की संतानों की ही अगली पीढि़यां हैं। सरकारी दस्तावेजों में उसकी पहचान T-16 के नाम से दर्ज है। चेहरे पर मछली जैसा निशान होने की वजह से लोग उसे मछली कहते थे।
1997 में पैदा हुई बाघिन मछली अपने साथ जन्मी दो बहनों से ज्यादा ताकतवर थी और जवान होते ही उसने अपनी मां के इलाके के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया। अपने यौवनकाल में वह काफी ताकतवर थी। 2003 में उसने 12 फुट के एक मगरमच्छ से लड़कर उसे मार डाला था, हालांकि उस लड़ाई में उसे अपने दो कैनाईन दांत गंवाने पड़े थे। बाघिन मछली अपने बच्चों की हिफाजत के लिए अपने से बड़े बाघों से भी लड़ने में परहेज नहीं करती थी। रणथम्बोर के बाघों में मछली को खास पहचान दिलाने वाली बात यह थी कि वह इंसानों की उपस्थिति में सहज रहती थी। इस वजह से वह दुनिया भर के फोटोग्राफरों की मनपसंद बाघिन थी। उसके जीवन के अंतिम वर्षों में मुझे भी जंगल के बाहरी दायरों में उसे देखने और उसकी तस्वीर लेने का मौका मिला था। मछली को दुनिया में सबसे ज्यादा तस्वीरों, फिल्मों और वीडियो में दर्ज बाघिन माना जाता है।
कहा जाता है कि 1998 से 2009 के बीच बाघिन मछली को देखने के लिए दुनिया भर से आने वाले लोगों से सरकार को करोड़ों की आमदनी हुई। भारत सरकार ने बाघिन मछली पर एक डाक टिकट भी जारी किया था।
साभार ड्रीम 2047/ विज्ञान प्रसार। सभी तस्वीरें सुबोध मिश्र की।
Subodh Mishra
सुबोध मिश्र दिल्ली स्थित वरिष्ठ मीडियाकर्मी, लेखक, डॉक्युमेंट्री निर्माता और अनुवादक है. विज्ञान, विकास और वन्यजीवन से जुड़े विषयों पर कई दशकों से सक्रिय हैं.